लाइट्स कैमरा एक्शन: संगीत की खान खय्याम

12 Oct, 2018

 संगीत के बिना हिंदी फ़िल्में अधूरी सी लगती हैं। संगीतकार जब कहानी को सुर, लय और ताल में पिरोते हैं तो एक ख़ूबसूरत सी तस्वीर दर्शक को सामने उभरती है। हिंदी सिनेमा में एक से बढ़कर एक संगीतकार हुए हैं, जिनमें बेहद ख़ास मुक़ाम रखते हैं मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम यानि ख़य्याम साहब। 92 साल के हो चुके ख़य्याम ने हिंदी सिनेमा को उमराव जान, कभी-कभी और बाज़ार जैसी फ़िल्मों के ज़रिए ऐसा संगीत दिया है, जो समय की सीमाओं से परे आज भी कानों में रस घोल जाता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में करियर शुरू करने से पहले ख़य्याम एक फौजी थे और ब्रिटिश इंडियन आर्मी की तरफ़ से दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मैदाने-जंग में भी अपना जौहर दिखा चुके थे। फ़िल्मों में करियर तलाशने की ख़्वाहिश लेकर ख़य्याम लाहौर गये थे, जहां उन्होंने मशहूर पंजाबी संगीतकार बाबा चिश्ती से संगीत की शिक्षा ली। 1948 की फ़िल्म हीर रांझा से ख़य्याम ने हिंदी सिनेमा में डेब्यू किया, मगर इस फ़िल्म के क्रेडिट रोल्स में उनका नाम यह नहीं गया। दरअसल, इस फ़िल्म का म्यूज़िक शर्मा जी-वर्मा जी की जोड़ी ने तैयार किया था। इस जोड़ी के शर्मा जी ख़य्याम ही थे। इसके पीछे एक मज़ेदार कहानी है। 1961 की फ़िल्म शोला और शबनम ने ख़य्याम को एक बड़े संगीतकार के तौर पर स्थापित कर दिया। ख़य्याम अपनी बेगम जगजीत कौर के साथ मुंबई में रहते हैं। जगजीत और ख़य्याम की पहली मुलाक़ात की कहानी भी बड़ी रूमानी है। ख़य्याम साहब से जागरण डॉट कॉम के एंटरटेनमेंट एडिटर पराग छापेकर ने ख़ास मुलाक़ात की और उनकी निजी ज़िंदगी से लेकर संगीत के सफ़र पर विस्तार से बातचीत की है, जिसे आप लाइट्स कैमरा एक्शन के इस एपिसोड में देख सकते हैं।

Related videos

यह भी पढ़ें

This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.Accept
BACK