World Athletics Day 2025 : दुनियाभर में 7 मई को विश्व एथलेटिक्स दिवस मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का मुख्य लक्ष्य युवाओं को एथलेटिक्स के प्रति जागरूक करना और इस खेल में उनकी भागीदारी को बढ़ावा देना है। इसके साथ ही इस दिन को मनाने के पीछा का लक्षय है कि लोग अपने जीवनशैली और फिटनेस के प्रति जागरूक हो सके। इस दिन तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय एमेच्योर एथलेटिक्स महासंघ (IAAF) ने इस दिन को 'एथलेटिक्स फॉर ए बेटर वर्ल्ड' नामक एक सामाजिक जिम्मेदारी परियोजना के रूप में भी स्थापित किया था।
इस आर्टिकल में हम आपको तीन ऐसे प्रतिभाशाली एथलीट के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने भारत को पदक तो दिलाए हैं लेकिन वो बिना किसी पहचान, प्रशंसा या श्रेय के अपना जीवन काट रहे हैं। देश का नाम ऊंचा करने वाले इन खिलाड़ियों को आज हम भूल चुके हैं। आइए इन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों पर एक नजर डाली जाए, जिन्हें हमने नजरअंदाज कर दिया।
अगर आप किसी भारतीय से पूछेंगे कि आशा रॉय कौन है? तो ज्यादातर लोग कहेंगे कि वो उनके बारे में नहीं जानते। इसमें आप किसको दोषी ठहरा सकते है? भारतीय एथलेटिक्स में उनके योगदान को लगभग बुला दिया गया है। आशा रॉय ट्रैक पर सबसे तेज भारतीय हैं लेकिन फिर भी हम उनके बारे में नहीं जानते। भारत की सबसे तेज धावक, जिसने 2011 में राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया, आज गरीबी में जी रही है। पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव की सब्जी विक्रेता की बेटी ने विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता हासिल की। लेकिन बिना किसी समर्थन के आज वो गुमनामी के अंधेरे में खो गई हैं।
आशा ने 2004 में चार स्वर्ण जीते और 2006 में जूनियर नेशनल्स में चमकीं। 2013 में ग्रैंड प्रिक्स में स्वर्ण और एशियाई चैंपियनशिप में रजत जीता, लेकिन 2015 में ओलंपिक की तैयारी के दौरान कमर की चोट ने उनके करियर को मोड़ दिया। बुनियादी सुविधाओं की कमी और समर्थन न मिलने से वह उबर नहीं पाईं और गुमनामी में खो गईं।
कमल कुमार वाल्मीकि, जिन्होंने बॉक्सिंग में तीन राज्य स्तरीय स्वर्ण पदक जीते, आज पेट भरने के लिए सड़कों पर कूड़ा बीनने को मजबूर हैं। वे कभी राज्य स्तरीय अकादमी में कोचिंग करना चाहते थे, लेकिन आर्थिक तंगी ने उन्हें इस हाल में पहुंचा दिया। अब वे अपने चार बच्चों का पालन-पोषण कर रहे हैं और अपने पदकों को कहीं छुपा कर रखते हैं, शायद इसलिए क्योंकि उनकी कीमत आज उनके लिए सड़कों से उठाए गए कचरे से ज्यादा नहीं है, जो उनके परिवार का सहारा है।
ओडिशा की एक अंतरराष्ट्रीय महिला फुटबॉलर, जिसने मलेशिया, बहरीन और बांग्लादेश जैसे देशों में भारत का प्रतिनिधित्व किया, आज अपने गांव में सुपारी और पान बेचकर गुजारा कर रही हैं। गरीबी के कारण उन्हें फुटबॉल छोड़ना पड़ा। उन्होंने एक पारंपरिक मछुआरे से शादी की और अब अपने बच्चे की परवरिश के लिए यह छोटी सी दुकान चलाती हैं। यह कहानी प्रतिभा और आर्थिक तंगी के बीच एक दुखद विरोधाभास दिखाती है, जहां एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
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